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रथ यात्रा का इतिहास – History of Rath Yatra in Hindi
पुरी में भगवान जगन्नाथ के मंदिर से प्रतिवर्ष हिन्दू पंचाग के अनुसार आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष द्वितीया के दिन भव्य और विशाल रथ यात्रा का आयोजन किया जाता है। अंग्रेजी कलैण्डर के अनुसार रथ यात्रा प्रतिवर्ष जून और जुलाई माह के समय आयोजित की जाती है। रथ यात्रा में भाग लेने के लिए देश और विदेश से प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में श्रद्धालु पुरी आते है।
रथ यात्रा के समय श्री जगन्नाथ मंदिर से भगवान श्री जगन्नाथ उनके बड़े भाई बलभद्र और छोटी बहन सुभद्रा की मूर्तियों को जगन्नाथ मंदिर से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित प्राचीन गुंडिचा मंदिर तक विशाल रथों में लेकर जाया जाता है। (गुंडिचा मंदिर का निर्माण पुरी के शासक इन्द्रद्युम्न की पत्नी ने करवाया था)।
ऐसा माना जाता है की गुंडिचा मंदिर भगवान जगन्नाथ की मौसी का घर है, और भगवान जगन्नाथ अपने भाई बहन के साथ प्रतिवर्ष अपनी मौसी के घर 9 दिन आराम करने के लिए जाते है। रथ यात्रा के समय भगवान जगन्नाथ उनके भाई और बहन के विग्रह को लकड़ी से बने हुए 3 विशाल रथों अलग-अलग स्थापित किया जाता है।
लकड़ी से बने हुए इन विशाल रथों को रथ यात्रा में भाग लेने आये हुए श्रद्धालुओं द्वारा ही खिंचा जाता है। ऐसा माना जाता है की रथ यात्रा के समय भगवान के रथों को खींचने पर पापों से मुक्ति मिलती है और मोक्ष की प्राप्ति होती है। पुरी में आयोजित की जाने वाली भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा का वर्णन पद्म पुराण, ब्रह्म पुराण, कपिला संहिता और स्कंद पुराण जैसे पौराणिक ग्रंथों में रथ यात्रा का उल्लेख विस्तृत रूप से किया गया है।
18वीं शताब्दी के समय जयपुर के महाराजा रामसिंह द्वारा भी रथ यात्रा का आयोजन करवाया गया था। ओडिशा में पूरी के अलावा परलाखेमंडी और मयूरभंज के शासकों द्वारा भी रथ यात्रा का आयोजन करवाया गया था। लेकिन पुरी में आयोजित की जाने वाली रथ यात्रा के जितनी लोकप्रियता किसी दूसरी रथ यात्रा को नहीं मिली।
अनेक इतिहासकारों ने अपनी पुस्तकों में गंग वंश के राजाओं द्वारा 1150 ईस्वी के आसपास जगन्नाथ मंदिर के निर्माण कार्य पूरा होने के बाद रथ यात्रा आयोजित किये जाने का उल्लेख किया है। ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार पुरी में आयोजित की जाने वाली रथ यात्रा हिंदूओं द्वारा मनाये जाने वाले उन हिन्दू त्यौहार में शामिल है जिसके बारे पश्चिमी देशों में रहने वाले लोगों को सबसे पहले पता चला था।
पौराणिक कथा – Story of Rath Yatra in Hindi
भगवान श्रीकृष्ण और राधाजी नाम सैदेव साथ में लिया जाता है, और आज तक भगवान श्रीकृष्ण के जितने भी मंदिर बने है उनमें अधिकांश मंदिरों में भगवान श्रीकृष्ण और राधा जी की मूर्तियाँ साथ में स्थापित की जाती है। लेकिन जगन्नाथपुरी में श्री जगन्नाथ मंदिर के गृभगृह में भगवान जगन्नाथ (श्रीकृष्ण) के साथ राधाजी की मूर्ति को स्थापित नहीं किया गया है।
बल्कि श्री जगन्नाथ मंदिर में भगवान जगन्नाथ के साथ उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के विग्रह को स्थापित किया गया है। रथ यात्रा के समय भी भगवान जगन्नाथ के साथ उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के अलग-अलग रथों को तैयार किया जाता है। श्री जगन्नाथ मंदिर में भगवान जगन्नाथ और उनके भाई-बहन के विग्रह की स्थापना और रथ यात्रा से जुड़ी हुई पौराणिक कथा पुरी में बहुत ही सुंदर तरीके सुनाई जारी है।
पौराणिक कथा के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण द्वारिका के अपने महल में अपनी पत्नी रुक्मणि और अन्य रानियों के साथ नींद ले रहे होते है, उस समय भगवान श्रीकृष्ण अपनी नींद में राधे-राधे नाम पुकारने लग जाते है। श्रीकृष्ण के मुख से राधे-राधे नाम सुनकर रुक्मणि और अन्य रानियां को बहुत आश्चर्य हुआ।
अपनी रात की नींद पूरी होने के बाद भी भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी नींद में बोले गए शब्दों पर किसी भी तरह का भाव प्रकट नहीं होने देते है। रानी रुक्मणि और भगवान श्रीकृष्ण की अन्य रानियों को पता चलता है की भगवान श्रीकृष्ण जब वृंदावन में रहते थे तो उस समय राधा नाम की गोपिका के साथ ज्यादा समय व्यतीत करते थे।
रानी रुक्मणि और अन्य रानियों को लगा की हमारे द्वारा श्रीकृष्ण इतनी सेवा करने के बाद भी वह राधाजी को नहीं भुला पा रहे है तो इसका कारण माता रोहिणी से पूछा जाना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण द्वारा वृंदावन में रहते हुए रची गई सभी लीलाओं के बारे में माता रोहिणी को बहुत अच्छी तरह से पता था।
रानी रुक्मणि और सभी रानियां इकट्ठी होकर माता रोहिणी के पास जाती है, और माता रोहिणी से भगवान श्रीकृष्ण द्वारा राधाजी के साथ बिताये गए समय और लीलाओं का वर्णन करने का निवेदन करती है। शुरुआत में तो माता रोहिणी सभी रानियों को टालने का बहुत प्रयास करती है लेकिन थोड़ी ही देर में वह भगवान श्रीकृष्ण की रानियों की जिद्द के सामने हार मान लेती है।
भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं के बारे में बताने से पहले माता रोहिणी रानियों से कहती है की श्रीकृष्ण की छोटी बहन सुभद्रा को कक्ष के बाहर पहरे पर बिठा दो ताकि कोई भी कथा सुनाते समय कक्ष में प्रवेश ना कर पाये। चाहे वो स्वयं भगवान श्रीकृष्ण और उनके बड़े भाई बलराम ही क्यूँ ना हो।
माता रोहिणी के कथा शुरू करने के कुछ समय बाद ही भगवान श्रीकृष्ण और बलराम कथा वाले कक्ष की तरफ आ रहे होते है तो उनकी बहन सुभद्रा उन्हें कक्ष के द्वार के पास ही रोक लेती है। कथा सुनाते हुए माता रोहिणी की आवाज़ कक्ष से बाहर तीनो भाई बहनों को सुनाई देती है। भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं को सुनते हुए तीनों भाई बहन के कथा में मगन हो कर भाव विह्वल हो जाते है।
कथा सुनते-सुनते तीनों भाई बहन ऐसी अवस्था में पहुँच जाते है तीनों में से किसी को भी ध्यान से देखने पर उनके हाथ और पैर स्पष्ट नहीं दिखाई दे रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्र भी कथा वाचन के समय विगलित हो गया और उसने लंबा आकार धारण कर लिया। माता रोहिणी द्वारा राधाजी के बारे में वर्णन करने पर तीनों भाई बहन ऐसी गौरवशाली स्थित में पहुँच गए थे।
कुछ समय के बाद जब नारद मुनि का आगमन होता है तो तीनो भाई बहन सामान्य स्थित में आ जाते है। लेकिन नारद मुनि उसी समय भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना करते है की मैंने आप तीनों भाई बहन और आपका सुदर्शन चक्र अभी जिस महाभाव मुद्रा में लीन रूप में दर्शन किये है। ऐसे दर्शन सदैव सामान्यजन के दर्शन हेतु पृथ्वी पर विराजमान रहे। उसी समय भगवान श्रीकृष्ण नारद जी को आशीर्वाद दिया की समय आने पर हम तीनों भाई बहन पृथ्वी पर इसी मुद्रा में स्थापित किये जाएंगे।
चन्दन उत्सव | चंदन यात्रा – Chandan Yatra in Hindi
पुरी में प्रतिवर्ष भगवान जगन्नाथ की यात्रा के लिए एक विशेष प्रकार की लकड़ी से रथ यात्रा के लिए रथ तैयार किये जाते है। रथ यात्रा के लिए लकड़ी के रथों निर्माण कार्य रथ यात्रा से दो माह पूर्व अक्षय तृतीया के दिन शुरू किया जाता है। रथ यात्रा से पहले रथों का निर्माण कार्य शुरू करने से पहले पूजा अर्चना की जाती है।
रथों का निर्माण कार्य श्री जगन्नाथ मंदिर के मुख्य कार्यालय और पुरी के राजा के मुख्य महल के सामने शुरू किया जाता है। चंदन यात्रा या अक्षय तृतीया के समय ओडिशा में कृषि का सीजन शुरू हो जाता है, यहाँ के किसान वर्ष के इस समय अपने खेतों में बुवाई शुरू कर देते है। पुरी में चंदन यात्रा का उत्सव तीन सप्ताह (21 दिन) तक मनाया जाता है।
ओडिशा में अक्षय तृतीया के बाद ऐसा माना जाता है की इस दिन के बाद से देवताओं के गर्मियों में आने वाले त्यौहारों की शुरुआत भी हो जाती है। चंदन यात्रा में पुरी के सभी प्राचीन और प्रमुख मंदिरों में स्थापित देवताओं की प्रतिनिधि मूर्तियाँ अलग-अलग जुलूस से नरेंद्र टैंक पहुंचती है। नरेंद्र टैंक पहुंचने पर प्रतिमाओं को तालाब में नाव की सवारी करवाई जाती है।
इस यात्रा में भगवान जगन्नाथ के अन्य रूप जैसे राम-कृष्ण,मदन मोहन, जगन्नाथ और बलराम की प्रतिनिधि मुर्तियों के अलावा पुरी में स्थित पांच प्रमुख शिव मंदिरों की प्रतिनिधि मूर्तियाँ भी हिस्सा लेती है। नरेंद्र टैंक में इन सभी प्रतिनिधि मुर्तियों को एक छोटे से मंदिर में पानी से भरे हुए पत्थर के टब में चंदन का पेस्ट, इत्र और फूलों से स्नान करवाया जाता है।
स्नान पर्व – Snan Parv Rath Yatra in Hindi
पुरी के जगन्नाथ मंदिर में स्नान पर्व हिन्दू कैलेण्डर के अनुसार जेठ माह की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। स्नान पर्व के दिन भगवान जगन्नाथ उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के विग्रह को मंदिर के गर्भगृह से बाहर लाया जाता है। इन तीनों विग्रहों को जगन्नाथ मंदिर की पूर्व दिशा में बनी हुई दीवार के पास एक ऊंचे सिंहासन पर स्थापित किया जाता है।
सिहांसन पर स्थापित करने के बाद भगवान जगन्नाथ और उनके भाई-बहन को सूना कुआँ से लाये गए जल से नहलाया जाता है। भगवान को नहलाने की प्रक्रिया में पानी के 108 घड़ों से नहलाया जाता है। ठंडे पानी से नहलाने के कारण भगवान जगन्नाथ और उनके भाई-बहन बीमार हो जाते है। उसके बाद लगभग दो सप्ताह के लिए भगवान जगन्नाथ उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के दर्शन आम भक्तों के लिए रोक दिए जाते है।
स्नान पर्व के समय भगवान जगन्नाथ और उनके भाई बहन के विग्रह को श्रद्धालुओं से छिपाने के लिए मात्र तीन पत्ता चित्र और ओडिशा की पारम्परिक अनासरा पट्टिस के नाम से प्रसिद्ध पेंटिंग (अनासरा पट्टिस पेंटिंग को स्टार्च से सजे हुए कपड़े पर पेंट किया जाता है) को बांस की सहायता से एक सख्त आवरण बना कर रखा जाता है ताकि श्रद्धालु भगवान जगन्नाथ के दर्शन ना कर सके।
इस समय तीनो विग्रह को सिर्फ पत्तियां, फल, जड़े और जामुन ही दिए जाते है ताकि वह सही समय पर स्वस्थ हो जाए। इस अनुष्ठान से यह पता चलता है की जगन्नाथ पंथ की उत्पत्ति, मान्यतायें और विकास के साथ पुराने आदिवासी मूल्यों को कितना महत्व दिया जाता है। पुरी के मूल आदिवासी और शिकारी परिवार के सरदार बिस्वबासु की पुत्री।
और ब्राम्हण पुजारी की पुत्री ललिता को दैत्यपति और दैत्य के रूप में माना जाता है। इन दोनों को ही रथ यात्रा के समय भगवान जगन्नाथ उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की सेवा करने का विशेषाधिकार प्राप्त है।
रथ यात्रा के लिए रथ निर्माण – Preparation For Rath Yatra in Hindi
पुरी में रथ यात्रा के लिए भगवान जगन्नाथ उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के लिये प्रतिवर्ष तीन लकड़ी के नए रथों का निर्माण किया जाता है। रथ बनाने के लिए बढ़ई के द्वारा मुख्यरूप से दौसा, फसी जैसे वृक्षों की लकड़ी का उपयोग रथ निर्माण के लिए किया जाता है। रथ निर्माण के लिए उपयोग में लिए जाने वाली लकड़ी को ओडिशा की पूर्व रियासत दशापल्ला से लाया जाता है।
रथ का निर्माण करने वाले बढ़ई परिवार के सदस्यों को रथ का निर्माण करने के लिए वंशानुगत अधिकार प्राप्त होते है। वर्षों से एक ही बढ़ई परिवार के सदस्य रथों का निर्माण कर रहे है। रथों के लिए काम आने वाले लॉग को ओडिशा में बहने वाली महानदी से लेकर आया जाता है। फिर उसके बाद इन लकड़ी के लॉग को सड़क मार्ग के द्वारा पुरी लेकर आया जाता है।
लकड़ी के लॉग जब पुरी पहुँच जाते है तब निर्धारित योजना के अनुसार रथ निर्माण कार्य शुरू किया जाता है। रथ यात्रा के लिए रथों का निर्माण करने में बढ़ई को लगभग दो महीने का समय लग जाता है। तीनों रथों को सुंदर तरीके से सजाने के बाद इनको श्री जगन्नाथ मंदिर के पूर्वी द्वार जिसे सिंहद्वार भी कहा जाता है के सामने बड़ा डंडा पर खड़ा कर दिया जाता है।
प्रत्येक रथ के चारों तरफ नौ पार्स्व के देवताओं का निर्माण किया जाता है। प्रत्येक रथ पर बहुत सुंदर चित्रकारी का उपयोग करके हिन्दू धर्म के अलग-अलग देवी-देवताओं के बेहद सुंदर चित्र भी बनाये जाते है। तीनों रथों पर एक सारथी और चार घोड़े बने हुए होते है।
छेरा पहरा अनुष्ठान – Chera Pahra Ritual Rath Yatra in Hindi
रथ यात्रा शुरू होने से पहले जो महत्वपूर्ण अनुष्ठान सबसे पहले किया जाता है उसे छेरा पहरा कहा जाता है। छेरा पहरा अनुष्ठान की प्रक्रिया रथ यात्रा के समय दो बार की जाती है। छेरा पहरा अनुष्ठान को सबसे पहले रथ यात्रा शुरू होने से एक दिन पहले किया जाता है और दोबारा जब भगवान जगन्नाथ नौ दीन के बाद अपनी मौसी के घर से वापस श्री जगन्नाथ मंदिर आते है।
रथ यात्रा के समय छेरा पहरा अनुष्ठान को पूरा करने के लिए पुरी के राजा द्वारा सफाईकर्मी की वेशभूषा धारण की जाती है। एक सफाईकर्मी की वेशभूषा धारण करने के बाद तीनों रथों के चारों तरफ पानी के साथ झाड़ू लगाता है। रथों के झाड़ू लगाने की प्रक्रिया में राजा सबसे पहले रथों के लिये सड़क को सोने से बनी हुई झाड़ू से साफ करता है।
उसके बाद चंदन की लकड़ी का लैप बना कर उसे सड़क पर लगाता है। स्थानीय रिवाज के अनुसार कलिंग साम्राज्य के राजा को गजपति कह कर बुलाया जाता है। और इसके अलावा अपने साम्राज्य में गजपति का पदवी सबसे ऊंची मानी जाती है। कलिंग साम्राज्य का सबसे ताकतवर व्यक्ति होने के बाद भी गजपति भगवान जगन्नाथ को प्रति माह अपनी सेवा प्रदान करते है।
छेरा पहरा अनुष्ठान में जब गजपति राजा एक सफाईकर्मी का वेष धरकर अनुष्ठान को पूरा करते है तो इससे यह पता चलता है की भगवान जगन्नाथ के सामने एक गजपति राजा और एक श्रद्धालु में किसी भी प्रकार का कोई अंतर नहीं है। स्थानीय निवासियों में ऐसा भी विश्वास है कि जब गजपति छेरा पहरा अनुष्ठान पूरा नहीं करते तब तक रथों को अपनी जगह से नहीं हिलाया जा सकता है।
नव जुबना दर्शन – Nav Jubna Darshan RathYatra in Hindi
स्नान पर्व के बाद बीमार हुए भगवान जगन्नाथ उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के स्वस्थ होने की औपचारिक घोषणा रथ यात्रा शुरू होने से पहले ही कर दी जाती है। भगवान के स्वस्थ होने के बाद सभी देवताओं के विग्रह को ताजा रंग से रंगा जाता है। भगवान जगन्नाथ और उनके भाई बहन के विग्रह को रथ यात्रा के लिए पारंपरिक तरीके से तैयार किया जाता है।
भगवान को नए और ताजा रंगों में रंगने के साथ-साथ उनकी आँखों को भी एक पारम्परिक अनुष्ठान की प्रक्रिया से रंगा जाता है। भगवान की आँखों को रंगने के अनुष्ठान को नेत्रोत्सव कहा जाता है। इस अनुष्ठान के पूरा होने के बाद भगवान जगन्नाथ और उनके भाई बहन अब पूरी तरह से स्वस्थ हो चुके है। अब भगवान जगन्नाथ के भक्त उनके दर्शन कर सकते है।
अपनी बीमारी से स्वस्थ होने के बाद जब भगवान जगन्नाथ अपने भक्तों को दुबारा दर्शन देते है तो इसे नव जुबना दर्शन कहा जाता है। इस समय भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने के लिए हजारों की संख्या श्रद्धालु पुरी आते है। आमतौर पर इस उत्सव में भगवान जगन्नाथ के दर्शन दोपहर से शुरू होते है और देर रात तक भगवान जगन्नाथ के दर्शन किये जा सकते है।
पहांदी – Pahandi
श्री जगन्नाथ मंदिर के मुख्य गर्भगृह से जब भगवान जगन्नाथ उनके भाई बलभद्र और छोटी बहन सुभद्रा को रथ यात्रा के लिए बाहर लाया जाता है तो इस अनुष्ठान को पहांदी नाम से जाना जाता है। पहांदी अनुष्ठान के समय बहुत बड़ी संख्या में भक्त घंटे, टेलिंगी बाजा और कहली को बजाते हुए मंदिर के गर्भगृह से सभी देवताओं के विग्रह को सिंहद्वार के पास खड़े रथों तक लेकर जाते है।
रथ यात्रा के लिए मंदिर के सिंहद्वार से सबसे पहले भगवान जगन्नाथ का सुदर्शन चक्र बाहर आकर सुभद्रा के रथ पर अपना स्थान ग्रहण करता है। सुदर्शन चक्र के बाद बलभद्र का विग्रह मंदिर से बाहर आकर रथ पर अपना स्थान लेता है। बलभद्र के बाद सुभद्रा रथ पर अपना स्थान ग्रहण करती है और सबसे अंतिम में भगवान जगन्नाथ रथ पर अपना स्थान ग्रहण करते है।
भगवान जगन्नाथ के रथ पर विराजमान होने के कुछ समय के पश्चात रथ यात्रा का जुलूस प्रारम्भ हो जाता है। जैसे-जैसे रथ यात्रा का जुलूस आगे बढ़ता वैसे-वैसे जुलूस में भाग लेने आये हुई कलाकार के द्वारा पारम्परिक ओडिसी नृत्य और मृदंगा जैसे वाद्ययंत्रों द्वारा प्रस्तुति दी जाती है। इन प्रस्तुतियों के अलावा श्रद्धालुओं द्वारा जब भगवान जगन्नाथ के नाम से जयघोष लगाए जाते है तो रथ यात्रा का माहौल और भी भक्तिमय हो जाता है।
रथ यात्रा – Rath Yatra in Hindi
रथ यात्रा शुरू होने के बाद भगवान बलभद्र का रथ तालध्वज सबसे आगे चलता है। तालध्वज रथ की ऊंचाई कुल 34 फ़ीट की होती है और इसमें लकड़ी के 14 पहिये लगे हुए होते है। रथ के प्रत्येक पहिये की ऊंचाई 7 फ़ीट होती है। भगवान बलभद्र का रथ लाल और नील कपड़े से ढका हुआ होता है।
तालध्वज रथ के सारथी का नाम मटली होता है और इसके आगे चार सफेद रंग के घोड़े बने हुए होते है। भगवान बलभद्र के रथ के पीछे माता सुभद्रा का रथ चलता है जिसे दारपदलाना कहा जाता है। माता सुभद्रा के रथ की ऊँचाई 46 फ़ीट होती है और रथ में लकड़ी से बने हुए 7 फ़ीट ऊंचाई 12 पहिये लगे हुए होते है।
दारपदलाना रथ काले और लाल रंग के कपड़े से ढका हुआ होता है। दारपदलाना रथ के सारथी का नाम अर्जुन होता है और रथ के आगे लाल रंग के चार घोड़े बनें हुए होते है। रथ यात्रा के सबसे अंत में भगवान जगन्नाथ का रथ नंदीघोष रहता है। नंदीघोष रथ की ऊँचाई 45 फ़ीट होती है और इस रथ में लकड़ी के 16 पहिये लगे हुए होते है।
रथ के प्रत्येक पहिये की ऊँचाई 7 फ़ीट होती है। भगवान जगन्नाथ के सारथी का नाम दारूका होता है और रथ पर गहरे रंग के चार घोड़े बने हुए होते है। भगवान जगन्नाथ के रथ को लाल और पीले रंग के कपड़े से ढका जाता है। इन सभी रथों को रथ यात्रा में भाग लेने आये लाखों श्रद्धालुओं द्वारा खिंचा जाता है।
रथ यात्रा के समय स्थानीय लोगों और कलाकारों द्वारा अनेक तरह की पारम्परिक और सांस्कृतिक प्रस्तुतियाँ दी जाती है। रथ यात्रा के पूरे समय अनेक प्रकार की सांस्कृतिक प्रस्तुतियों के साथ -साथ आने वाली वाद्ययन्त्रों की ध्वनि से पुरी का माहौल और भी भक्तिमय हो जाता है। जगन्नाथ मंदिर से दोपहर के समय शुरू हुई रथ यात्रा रात होते-होते गुंडिचा मंदिर पहुंचती है।
गुंडिचा मंदिर पहुंचने के बाद अगले दिन तक तीनों देवताओं के विग्रह अपने-अपने रथों में ही रहते है। रथ यात्रा के अगले दिन भगवान जगन्नाथ, भगवान बलभद्र और माता सुभद्रा के विग्रह को गुंडिचा मंदिर के गर्भगृह में स्थापित किया जाता है। रथ यात्रा के नौ दिनों में गुंडिचा मंदिर में भगवान जगन्नाथ, भगवान बलभद्र और माता सुभद्रा के दर्शन को आड़प दर्शन कहा जाता है।
प्राचीन समय में जगन्नाथ मंदिर और गुंडिचा मंदिर के बीच में एक नदी बहा करती थी। इस वजह से उस समय रथ यात्रा के लिए 6 रथों का निर्माण किया जाता था। पहले तीन रथों से रथ यात्रा जगन्नाथ मंदिर से नदी के किनारे तक जाती थी और उसके बाद तीनों देवताओं को नदी पार करवा के दूसरे तीन रथों से गुंडिचा मंदिर तक लेकर जाया जाता था।
गुंडिचा मंदिर, जगन्नाथ भगवान की मौसी का घर – Gundicha Temple Puri Rath Yatra In Hindi
गुंडिचा मंदिर को भगवान जगन्नाथ की मौसी का घर भी माना जाता है और इसके अलावा इस मंदिर को जनकपुर भी कहा जाता है। गुंडिचा मंदिर में अपने नौ दिन के प्रवास काल के समय भगवान जगन्नाथ हर दिन एक अवतार का रूप धारण करते है। भगवान जगन्नाथ के यह सभी अवतार भगवान विष्णु के दशावतार से संबंधित होते है।
गुंडिचा मंदिर में भगवान जगन्नाथ के विग्रह के साथ एकदम मनुष्यों के जैसा व्यवहार किया है। अपनी मौसी के घर पर जगन्नाथ भगवान जगन्नाथ स्वादिष्ट और अलग-अलग तरह के पकवान खाकर बीमार हो जाते है। भगवान जगन्नाथ को शीघ्र स्वस्थ करने के लिए उन्हें पथ्य का भोग लगाया जाता है। पथ्य का भोग लगाने स भगवान जगन्नाथ बहुत जल्दी स्वस्थ हो जाते है।
हेरा पंचमी – Hera Panchami Rath Yatra in Hindi
रथ यात्रा के समय भगवान जगन्नाथ के अपनी मौसी के घर पर प्रवास के तीसरे दिन माता लक्ष्मी पालकी में भगवान जगन्नाथ को ढूंढते हुए गुंडिचा मंदिर आती है। माता लक्ष्मी के गुंडिचा मंदिर पहुंचने पर द्वारपाल द्वारा मंदिर का दरवाजा बंद कर दिया जाता है। मंदिर का दरवाजा बंद करने से माता लक्ष्मी नाराज हो जाती है और भगवान जगन्नाथ के रथ नंदिघोष का पहिया तोड़ देती है।
उसके बाद माता लक्ष्मी गुस्से में अपने मंदिर हेरा गोहिरी साही में लौट जाती है। माता के अपने मंदिर लौटने के बाद भगवान जगन्नाथ उनका गुस्सा शांत करने के लिये जाते है। माता लक्ष्मी का गुस्सा शांत करने के लिए भगवान जगन्नाथ अपने साथ अनेक पर के आभूषण, उपहार और स्वादिष्ट मिठाई लेकर जाते है।
भगवान जगन्नाथ के द्वारा बहुत देर तक मनाने के बाद माता लक्ष्मी का गुस्सा शांत हो जाता है और उसके बाद मंदिर में भगवान जगन्नाथ के जयघोष के नारे लगाए जाते है। भगवान जगन्नाथ द्वारा लक्ष्मी जी को मना लिए जाने वाले दिन को विजयादशमी कहा जाता है।
बहुदा यात्रा – Bahuda Yatra
जब भगवान जगन्नाथ अपने नौ दिन का प्रवास पूरा करने के बाद वापस श्री जगन्नाथ मंदिर लौटते है तो इस यात्रा को बहुदा यात्रा कहा जाता है। देवशयनी एकादशी से पहले भगवान जगन्नाथ का श्री जगन्नाथ मंदिर लौटना बहुत आवश्यक हो जाता है। क्योंकि देवशयनी एकादशी के बाद भगवान जगन्नाथ चार महीने तक निद्रा में चले जाते है।
बहुदा यात्रा के समय भगवान जगन्नाथ देवी अर्धासिनी के मंदिर में कुछ देर के लिए रुकते है। देवी अर्धासिनी मंदिर को भगवान जगन्नाथ की मौसी माँ का मंदिर भी कह कर पुकारा जाता है।
सोना बेशा – Sona Besha Rath Yatra in Hindi
1460 में पुरी के राजा कपिलेंद्र देब ने युद्ध से विजयी होकर आने के बाद श्री जगन्नाथ मंदिर में बहुत ज्यादा मात्रा में स्वर्ण का दान किया था। उस दिन के बाद से प्रति वर्ष रथ यात्रा के बाद भगवान जगन्नाथ को लगभग 208 किलो वजन के सोने के गहने पहनाए जाते है। भगवान जगन्नाथ को सोने के गहने पहनाने के अनुष्ठान को सोना बेशा कहा जाता है।
सोना बेशा अनुष्ठान के समय लाखों की संख्या में श्रद्धालु भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने के लिये श्री जगन्नाथ मंदिर आते है। 9 जुलाई 2014 को हुए सोना बेशा अनुष्ठान में लगभग 9 लाख श्रद्धालुओं ने देखा था।
नीलाद्रि बिजया – Niladri Bijya Puri Rath Yatra in Hindi
बहुदा यात्रा के बाद जब भगवान जगन्नाथ वापस श्री जगन्नाथ मंदिर पहुँचते है तो वह एक दिन लिए रथ में ही रुकते है। और फिर अगले दिन उन्हें श्री जगन्नाथ मंदिर के गर्भगृह में वापस स्थापित किया जाता है। भगवान जगन्नाथ के विग्रह को जगन्नाथ मंदिर के गर्भगृह में स्थापना के अनुष्ठान को नीलाद्रि बिजया के नाम से जाना जाता है।
(अगर आप मेरे इस आर्टिकल में यहाँ तक पहुंच गए है तो आप से एक छोटा से निवदेन है की नीचे कमेंट बॉक्स में इस लेख से संबंधित आपके सुझाव जरूर साझा करें, और अगर आप को कोई कमी दिखे या कोई गलत जानकारी लगे तो भी जरूर बताए। में यात्रा से संबंधित जानकारी मेरी इस वेबसाइट पर पोस्ट करता रहता हूँ, अगर मेरे द्वारा दी गई जानकारी आप को पसंद आ रही है तो आप अपने ईमेल से मेरी वेबसाइट को सब्सक्राइब जरूर करे, धन्यवाद )