मैक्लोडगंज में स्थित नेचुंग मठ बौद्ध और तिब्बती लोगों के लिए धार्मिक आस्था का बड़ा केंद्र माना जाता है। मुख्य शहर से मात्र 3.4 किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह नेचुंग मठ बौद्ध और तिब्बती समुदाय के लोगों के लिए ऐतिहासिक महत्व भी रखता है। नेचुंग मठ अन्य बौद्ध मठों से एकदम अलग है, इस मठ में पूर्व-बौद्ध संस्कार, नेचुंग कब्जे और भूत भगाने वाली क्रियाएँ ज्यादा की जाती है।
इस वजह से इस मठ का माहौल थोड़ा डरावना भी लगता है। इन सभी क्रियाओँ के अलावा मठ के आंतरिक भाग में जितनी भी कलाकृतियां और भित्ति चित्र बनाई गए है वह भी अन्य बौद्ध मठों से बिल्कुल अलग बनाये गए है। मठ में भीतरी भाग में चमकदार अजीब आकृतियाँ बनाई गई है। चमकीली आकृतियों के अलावा मठ में नागों और मानवों की पेंटिंग, सिर और पैर की पेंटिंग और पतले कपड़ों की माला के साथ क्रोधी देवताओं की कलाकृतियां भी बनाई गई है।
मठ के मुख्य हॉल के स्तम्भों पर बौद्ध धर्म के पौराणिक जानवरों की आकृतियाँ भी उकेरी गई है जैसे कुंडली लगाए हुए साँप और ड्रैगन। नेचुंग मठ 1959 तक तिब्बत की ओरेकल सीट थी, इसके अलावा यह भी माना जाता है कि नेचुंग परम पावन दलाई लामा और तिब्बत के रक्षक देवता है। इस वजह से बौद्ध और तिब्बत के इतिहास में नेचुंग को बहुत ज्यादा महत्व दिया गया है।
18वीं शताब्दी में नेचुंग ने तिब्बती सरकार के लिए आध्यात्मिक मार्गदर्शक के तौर पर काम किया था। बौद्ध और तिब्बती सम्प्रदाय के लोग नेचुंग को कुटेन भी कहते है। ऐसा माना जाता है की जब कोई माध्यम ट्रान्स जैसी स्थिति में पहुँच जाता है तो रक्षक देवता माध्यम के शरीर पर कब्जा कर लेते है और वर्तमान दलाई लामा और तिब्बती नेताओं को सलाह और भविष्यवाणी करके बताते है।
1959 से पहले तिब्बत के ल्हासा के मूल नेचुंग मठ में 115 भिक्षु रहा करते थे लेकिन 1959 की क्रांति के बाद सिर्फ 06 बौद्ध भिक्षु तिब्बत से भारत भाग कर आने में सफल हुए। उसके बाद तत्कालीन भारत सरकार ने उन भिक्षुओं को यहाँ पर नेचुंग मठ बनाने के लिए अनुमति प्रदान की। उसके बाद 1977 में नए नेचुंग मठ का निर्माण शुरू किया गया और 1984 में यह मठ बन कर पूरी तरह से तैयार हो गया।
नेचुंग मठ से जुड़े हुए धार्मिक महत्व के कारण आसपास के सभी बौद्ध सम्प्रदाय के लोग इस मठ की यात्रा करते रहते है।